Monday, October 18, 2010

हम सच -मुच हैं !!

हम मैं से ज्यादातर

एक-दो या हद से हद तीन कमरों के फ्लैट

में रहते हैं -

हम मकान में नहीं , मकान के भ्रम

में रहते हैं !


किसी ग़लतफ़हमी का शिकार न हों

तो हम में से अधिकतम

शाम घर वापसी पर रीते हो जाते हैं

उम्र से पहले ही बीते

हो जाते हैं !

हम जबरन समझौता कर

पति / पत्नी ,एक-दो अदद बच्चों

के साथ रहते हैं ,

किन्तु वस्तुतः हम अकेले होते हैं !


रविवार की छुट्टी में -

घर का काम निबटते हैं

बचे समय में पैसों को दो का चार

करने की जुगत में लग जाते हैं !

सच में हम कभी जीते ही नहीं हैं /

जीते है लगते हैं ,

हमारे आराम बैंक - किश्तों पे पलते हैं !


मित्रों तो क्या करें -

वक्त के इस मिजाज़ न घबराएँ

इस वक्त को मानस में न स्थाई रूप से सजाएँ

और चुपके से अपने बन जाएँ !

सुबह जब भी मिले मौका

तो बेमतलब निकल जाएँ

वृक्ष देखें /सुनें कलरव /सन्नाटे के गीत

हरी घास पे घूमें / अपने को थोड़ा -

बहुत ही पायें !

दोस्तों इतना भर काफी है

यह आपकी भीतरी आपाधापी को

कुछ तो कम करेगा ही,

भीतर के घावों को कुछ तो भरेगा ही !


में मानता हूँ कि इस मुश्किल दौर में

हम पत्थर बन चुके हैं

लेकिन अगर हम खुद को थोड़ा बहुत उकेर लें

तो हर पत्थर एक जीती जागती मूर्ति है =

जो हम सच-मुच में हैं !






Friday, October 8, 2010

न चिड़ियाँ बचीं न खेत

न चिड़ियाँ बचीं न खेत
एक कहावत थी -
चिड़ियाँ चुंग गयीं खेत
अब न चिड़ियाँ बचीं न खेत
क्या चुगें !
पहले जंगल थे घने
आदमी थे बिखरे-बिखरे बसे
अब आदमी हो गए घने
और जंगल बिखरे-बिखरे !
हमारे भीतर के हालात भी हो चले हैं
चिड़ियों/जंगल की तरह
आदमी के भीतर आ गयी है
उमस भरी गर्मी
भीतरी कोलाहल इतना कि-
शोर मापने की मशीनें जबाब दे चुकी हैं
अब हमारे भीतर भी कुछ नहीं उगता
जो भी थोडा बहुत उपजता है
फलता नहीं है !