Sunday, July 28, 2013

प्रार्थना -बरसात में रोटी खिलाएं (ये कविता नहीं है )

प्रार्थना -बरसात में रोटी खिलाएं 
(ये कविता नहीं है )

बरसात में,बेचारी गायें
चौराहों और सड़कों पर न आयें 
तो बताइए कहाँ जाएँ .
आपके -हमारे वाहनों से 
अपाहिज हो कर भी 
कहाँ जाएँ ,जरा बताएं .

खेत खलिहान बचे नहीं ,
पॉलिथीन में भरा बदबूदार भोजन
पशुओं को पचे नहीं .

खेती की जमीन को -
इंटों के मकानों के नाम,
एन - ए बनाकर
कलेक्टर ने बिल्डरों को
कर दिया नीलाम.

गाय को रोटी निकालने का रिवाज
सिन्दूर लगाने की तरह हो गया है बंद,
सारे रिश्ते बिक गये
सिक्कों में चंद.

हल्कू ने चारे की जगह
इंटें बनाने का भट्टा लगा दिया
गायों को दूध देने का
कितना अच्छा सिला दिया .
जाएँ तो कहाँ जाएँ !
कृपया आप ही बताएं
गायें सड़कों न जाएँ
किसी के हाथों गोश्त के लिए
न बेचीं जाएँ तो कहाँ जाएँ .
कम से कम गोकशी से पहले
तक तो भोजन की गारंटी है ,
वरना उन बेचारियों को
योजना आयोग की क्या वारंटी है .

डॉ अजय

Monday, April 29, 2013

बड़ी मुश्किल है :ग़ज़ल 


कुछ तो बात है जिसको इस आवाम से छुपाया गया ,
वर्ना क्यों इस देश को सोने से यूँ मिटटी बनाया गया!
तमाम तारीखें बयां करती हैं रौशनी का सफ़र सचमुच,
रौशनी को क्यों अपनों से खुलेआम ऐसे छुपाया गया!
यह घुटाले ,ये हंगामे और ये गरीब के आंसू और क्या ,
आज़ादी - कीमत पर इसे मुल्क से क्यों छुपाया गया!
हम इतना भर कर लेते हैं कबीर ,सांस लेने के लिए कि
अपने ही हैं गिरेबा में देखें गे कुछ तो याद आया होगा ! 

डॉ अजय कबीर

Tuesday, February 26, 2013

gazal......


   ग़ज़ल 
फूलबाड़ी से चुनकर तो कई लोग फूल गुलदस्तों  मैं सजाते  हैं ,
ये हमारा निहायत अपना फन है हम फैंके हुओं से ढूँढ लाते  हैं I 
किताबें तमाम पढ़ कर तो  लोग अक्सर  अक्लमंद हो जाते हैं ,
हम रददी अख़बारों की कतरनों से फलसफा ए जिंदगी  बताते  हैंI 
हमारे हुनर पर न जाओ मुझसे खामखाँ, ओ   होड़ लगाने वालों ,
जीतने का इल्म-ए -हुनर रखते हैं और जीती  बाजीयां हार जाते हैंI 
हमसे तकरार न करो तो ही अच्छा है हम सबके लिए ओ! रकीब ,
 छोडने पे आ जाएँ तो दौलत क्या हुस्न क्या जमाना छोड़ जाते हैं I 

-डॉ अजय गुप्त 
 

Tuesday, January 15, 2013

संक्रांति -गीत



संक्रांति -गीत 

अब गिनती के ही  हैं -
 बचे !
अच्छा लिखने /बोलने /पढ़ने वाले 
समझने वाले ,
समझाने वाले .

अनुदित विषयों पर पोथी भर-भर 
लिखने वालों की बाज़ार में 
खूब लग रही हैं -बोलियाँ ! 
मौलिक रचना कर्मियों के जरा 
कम सजे पन्नों की 
जल रही हैं -होलियाँ !
ठोकर खा पहले से गिरे हुए को 
मिटाना और गिराना 
मर्दानगी का दंभ मन जा रहा है
झोपड़ियाँ गिराना और फिर  
उन पर महल सजाने वालों को 
लोकतंत्र में -
स्तम्भ माना  जा रहा है .

दोस्तों - एक  निहायत मतलब परस्त
भ्रान्ति हो रही है 
इसकी दिशा बदलाव के लिए 
संक्रांति जरूरी हो रही है .
क्योंकि -
अब गिनती के ही  हैं -
 बचे !
अच्छा लिखने /बोलने /पढ़ने वाले 
समझने वाले ,
समझाने वाले .

-डॉ अजय गुप्त 

Tuesday, January 8, 2013

POEM-GOOD PEOPLE IN HINDI



कविता - अच्छे लोग !

अच्छे लोग,अच्छे होने के 
ता-उम्र भ्रम में न रहें .
वे लम्हा-लम्हा ,
चैतन्य -सहज रहें .
कलुषता के कीचड़ में 
नहीं सनें 
पुष्पित जलज बनें .
ख़राब को ख़राब और 
अच्छों को अच्छा कहें .
अच्छे लोग .......
समाज की गति
है बदल रही ,
एक देश /एक परिवार में
एक सा खाने वालों की मति
है बदल रही .
गिरगिटी /गिरहकटी के नए दौर में
भितरघाती हवाओं में न बहें
अच्छे लोग .........
एक और बात
जो है जरूरी -
गेरों के साथ अच्छे से अच्छा करें
लेकिन समाज- कंटकों की -
हर बात
स्वाभिमान की शर्त पर
न मानें ,न सहें
अच्छे लोग,अच्छे होने के
ता-उम्र भ्रम में न रहें .
-डॉ अजय गुप्त

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Monday, December 31, 2012

नव वर्ष गीत .....

प्रत्येक पल 
जीएं 
नव-वर्ष 
सच मायने तभी होगा
उत्कर्ष
*
क्रंदन में अभिवंदन
वंदन मैं हो
चन्दन
जीवन-संघर्ष बना रहे
फिर भी रहे
हर्ष
*
गीत नए
मीत भी नए
नित नए आयाम
संगीत नए
स्वीकारें
सहर्ष
*
जीयें छोटे -छोटे
सुखद पल
मन हो निर्मल
अच्छे लोग अच्छी
बातें फैलाएं
एक नयी कड़ी बनायें
तभी बनेगी बात
मिटेगी
घोर अंधकार की रात
अंतर्मन से करें
ये
विचार-विमर्ष
-डॉ अजय गुप्त