ग़ज़ल
थम गए अब अभ्यारण्यों में भी पाखी के उन्मुक्त पाख*,
चिपकाने का तासीरी हुनर भी अब भूल चली है लाख **!
यूं कुछ इस तरह इन्सान फंसा दुनियावी मकडजाल में ,
न माया संभाल सका और न ही बची रह सकी साख !
बदल रहे हैं तेजी से सौन्दर्य के कई काल-जई प्रतिमान,
फूल खुशबू चन्दन और पानी के नए पर्याय बने हैं आख !***
"अजय " मेरी तड़प कुछ इस तरह से हो सकती है बयां,
धधक रही है लकड़ी , न कोयला बनी न रह सकी राख !!
*पंख *** गोंद सरीखा पदार्थ ***
2 comments:
बहुत ही खूबसूरत रचना लगी ।
वाह के सिवाय क्या कहूं!
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