Friday, October 8, 2010

न चिड़ियाँ बचीं न खेत

न चिड़ियाँ बचीं न खेत
एक कहावत थी -
चिड़ियाँ चुंग गयीं खेत
अब न चिड़ियाँ बचीं न खेत
क्या चुगें !
पहले जंगल थे घने
आदमी थे बिखरे-बिखरे बसे
अब आदमी हो गए घने
और जंगल बिखरे-बिखरे !
हमारे भीतर के हालात भी हो चले हैं
चिड़ियों/जंगल की तरह
आदमी के भीतर आ गयी है
उमस भरी गर्मी
भीतरी कोलाहल इतना कि-
शोर मापने की मशीनें जबाब दे चुकी हैं
अब हमारे भीतर भी कुछ नहीं उगता
जो भी थोडा बहुत उपजता है
फलता नहीं है !

1 comment:

Arvind Mishra said...

गनीमत है बॉस और बान्सुरिया अभी हैं