वह अब नहीं रही .........
सुबह की पहली किरन
 के साथ ही -
बुझ गयी एक नन्ही सी किरन 
मैं गीत अब मानव व्यथाओं के 
क्या लिखूं ?
मम स्पर्शी संवेदनाओं के 
क्या लिखूं ?
क्यों लिखूं कि मानवों को 
दानवों ने छला 
क्यों लिखूं द्रोपदी का चीरहरण 
क्यों लिखूं सीता अपहरण 
इन व्यथाओं  में फिर  भी था 
मानवपन का कुछ तो लेश 
किन्तु दिल्ली की इस दुर्दांतता  
से कुछ नहीं बचा शेष 
दोस्तों ,
शिखंडियों से आशा व्यर्थ है 
भीष्म से न्याय मिलने 
का कोई अर्थ है ?
ये लडाई हमको ही अब लड़नी पड़ेगी,
ये  लडाई हमको ही अब लड़नी पड़ेगी!!!
-डॉ अजय गुप्त 
1 comment:
बिलकुल .... किसी से कोई उम्मीद नहीं ...
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