Thursday, March 11, 2010

क्या - क्या कितना बदला :प्रत्येक संवेदन-सर्जन शील के लिए

ग़ज़ल
थम गए अब अभ्यारण्यों में भी पाखी के उन्मुक्त पाख*,
चिपकाने का तासीरी हुनर भी अब भूल चली है लाख **!
यूं कुछ इस तरह इन्सान फंसा दुनियावी मकडजाल में ,
न माया संभाल सका और न ही बची रह सकी साख !
बदल रहे हैं तेजी से सौन्दर्य के कई काल-जई प्रतिमान,
फूल खुशबू चन्दन और पानी के नए पर्याय बने हैं आख !***
"अजय " मेरी तड़प कुछ इस तरह से हो सकती है बयां,
धधक रही है लकड़ी , न कोयला बनी न रह सकी राख !!
*पंख *** गोंद सरीखा पदार्थ ***

2 comments:

Mithilesh dubey said...

बहुत ही खूबसूरत रचना लगी ।

ktheLeo (कुश शर्मा) said...

वाह के सिवाय क्या कहूं!